थॉमस अल्वा एडिसन और दृष्टिकोण
कुछ दिन पहले मुझ से किसी ने कहा कि, 'आपकी कहानियों में सोने के सिक्के ही क्यों होते हैं?' तब मैंने कहा कि, 'ये उस समय की कहानियाँ है जब कागज के रुपये नहीं होते थे।' मैंने इन कहानियों में यहीं बताने की कोशिश की है कि, जो बात तब सही थी वही बात आज भी सही हो सकती है, बस नजरिया बदल कर देखने की जरूरत होती है, जिसे हम 'perspective' कहते हैं।आज के समय की कहानी की बात करते हैं। थॉमस अल्वा एडिसन की कहानी सारी दुनिया जानती है, कि कैसे उनके स्कूल से एक कागज का टुकड़ा देकर उन्हें घर वापस भेज दिया गया था। जब उन्होंने अपनी मां को वह कागज दिखाया तो माँ वह पढ़कर रोने लगीं। बेटे के पूछने पर उन्होंने बताया कि इस पर लिखा है कि, आपका बच्चा इतना होशियार है कि स्कूल के अध्यापक उसे नहीं पढ़ा सकते। तब माँ ने उन्हें अपने आप घर पर ही पढ़ाना शुरू कर दिया और कुछ समय बाद वह एक वैज्ञानिक के रूप में पहचाने जाने लगे। अपनी माताजी के स्वर्गवास के बाद घर की सफाई के समय वही कागज जब उनको मिला। तब उन्होंने कागज पढ़ा तो उसमें लिखा था कि उनका बेटा मूर्ख है इसलिए उसे स्कूल से निकाला जा रहा है।
यह कहानी नहीं है। यह हकीकत है, किंतु कितने लोगों ने इस बात को गहराई से समझा है और, कितने लोग अपने बच्चों को पढ़ाई के समय मदद करते हैं। मदद के स्थान पर जो वो खुद नहीं कर सके उसे अपने बच्चों के द्वारा पूरा करने की इच्छा रखते हैं। आज के परिवेश में परिवारजनों को चाहिए कि, जब बच्चों को भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता हो तब माता पिता उसकी परेशानी को समझ कर कोई हल निकाले, और उसके साथ रहे, ताकि बच्चे को अकेलापन महसूस ना हो। बच्चा अपनी समस्या बिना किसी हिचकिचाहट के उनके सामने रख सके। छोटे से बच्चे के साथ से ही स्पष्ट, पारदर्शी तरीके से, मित्रों जैसा सम्बन्ध बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए। दोंनो में दोस्तों जैसा व्यवहार होगा, तो कोई भी कटु स्थिति आने से पहले ही सुलझ जाएगी।
अपनी बात को अधिक स्पष्ट करने से पहले, एक परिचिता की बताई हुई घटना आपके साथ साझा करना चाहूँगी। मेरी एक मित्र ने बताया कि, उनके छोटे बेटे को पढ़ाई के समय काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। वह शुरुआत से ही बहुत ज्यादा बीमार रहता था। घर में थोड़ी बहुत पढ़ाई करके उसने विद्यालय की प्रवेश परीक्षा पास कर ली। लेकिन जब छात्र कक्षा में किसी एक प्रश्न का उत्तर नहीँ दिया, तो अध्यापिका ने लड़के को दीवार की तरफ मुँह करके खड़ा कर दिया। हो सकता है नई कक्षा, नये सहपाठी, नये अध्यापक और नये माहौल को देखकर शायद उत्साह में उसने कोई शरारत भी की हो, परन्तु एक ढाई साल के बच्चे के लिए आधे घंटे तक दीवार की तरफ मुँह करके खड़े होना बहुत ज्यादा बड़ी सजा थी।
बात इतनी सी नही थी। अब, अगले दिन भी, टीचर ने उसे आते ही दीवार की तरफ मुँह करके खड़ा कर दिया, थोड़ी देर बाद बेटे ने पलट कर देख लिया तो मास्टरनीजी ने उसे अलमारी के पीछे जा कर खड़े होने की सजा दे दी। अब, रोज अध्यापिका उसको दीवार की तरफ मुँह करके, लोहे की अलमारी के पीछे खड़ा कर देती थी। जल्द ही, बेटे ने स्कूल जाने से मना करना शुरू कर दिया। फिर एक दिन, माँ ने बड़े बेटे से कहा कि, मध्यावकास के समय में जाकर देखे कि छोटे को कोई बच्चा तो तंग नही करता, किस बात से डर कर वो स्कूल नहीं जाना चाहता। माँ ने घर मे पढ़ाते हुए देखा कि बेटा d और b, w और m लिखने में गलती करने लगा है। प्रतिदिन के कक्षा कार्य की अभ्यास पुस्तिका पर काम नहीं किया, काम गलत है और काम गंदा है, लिखा मिल रहा था। अब एक दिन बड़े बेटे ने घर आकर बताया कि वो किसी काम से छोटे की कक्षा में गया तो देखा कि उसे दीवार की ओर मुँह करके अलमारी के पीछे खड़े होने की सजा मिली हुई थी। अब माँ को बेटे की सारी बात समझ आ गई। जब विद्यालय में बात की तो कोई सुनवाई नहीं हुई तब अपने बच्चें को पढ़ाने के लिए माँ ने ही कमर कस ली, और फिर जिस बच्चें को बचपन मे अध्यापिका जी ने डिस्लेक्सिया मरीज, बता दिया था आज वह एक सौ तीस के आईक्यू के साथ अच्छी खासी डिग्री, डिप्लोमा और सार्टिफिकेट ले चुका है। शायद यह बेटा भी आने वाले समय का थॉमस एल्वा एडिसन हो।
जिन शिक्षा संस्थानों को बच्चों को पढ़ाने के लिए एक मोटी रकम दी जाती है, उन पर आँख बंद करके भरोसा नहीं किया जा सकता। बच्चे हमारे है, तो हमें ही उनका साथ देना है। जिससे वह हरेक दुख, तकलीफ, मुसीबत, परेशानी या समस्या से आसानी हमारे साथ बाँटे, साझा करें और उनसे घबराने की बजाय उन से बाहर निकल सके।हम उनको हर परिस्थिति का सामना करने की हिम्मत दे सकते हैं, ताकि वो कठिनाइयों को चीर कर बाहर आ सके।